शांतिकर्म के कर्म में गृहशांति के प्रयोग दिये गये हैं। यह प्रयोग नवग्रहों वाली शांति से भिन्न है।
इसमें घर के अंदर विभिन्न प्रकार के दैवीय कारणों से उत्पन्न होने वाली आपत्तियों-विपत्तियों के लिए ये प्रयोग दिया गया है।
घर के शांत-सुखद वातावरण को कलुषित और अशांत करने के बहुत से कारण होते हैं।
उनमें से चार कारणों को प्रमुखता से देखा जा सकता है। गृह अशांति के चार प्रमुख कारण भौतिक, दैविक, अभिचारिक और पित-प्रेत दोष हैं।
व्यक्ति के दुराग्रह, स्वभाव की कटुता और हठधर्मिता से उत्पन्न विवादास्पद परिस्थितियों से होने वाली अशांति तथा अनावश्यक रूप से वाद-विवाद के प्रकरण खड़े कर देने में गृह की शांति भंग हो जाती है।
जब व्यक्ति स्वयं को दूसरों की अपेक्षा उच्च, श्रेष्ठ और ज्ञानी मानकर दूसरों को उपेक्षा और लघुता की दृष्टि से देखता है, तब भी जीवन के किसी-न-किसी मोड़ पर किसी व्
इस प्रकार कहा जा सकता है कि गृह अशांति के भौतिक कारण व्यक्ति द्वारा स्वयं ही उत्पन्न किए हुए होते हैं। गृह-शांति को प्रभावित करने में इस जन्म और पूर्व जन्म के पाप-कर्म अधिक प्रभावी होते हैं और इन्हीं को गृह-अशांति के लिए दैविक कारण माना जाता है।
काफी लग्न, श्रम और योग्यता के बाद भी किसी व्यक्ति को उसके क्षेत्र में निरंतर असफलता मिलते जाने को दैविक कारण के अलावा और भला कहा भी क्या जा सकता है।
दुरैव की दिशा में कभी-कभी आनुष्ठानिक व्यवस्थाएं भी निष्फल ही सिद्ध होती हैं किंतु ऐसी विषम परिस्थिति में शाबर मन्त्र साधना बड़ी प्रभावी होती है।
अभिचारिक कर्मों द्वारा जब किसी के गृह की शांति को अशांति में बदल दिया जाता है तो उस व्यक्ति और उसके परिवार की स्थिति विक्षिप्तों के समान हो जाता है। यह स्थिति तब तक बनी रहती है. जब तक कि अभिचार कमों के प्रतिकार स्वरूप कुछ उपाय न किए जाएं। ऐसे उपायों का शाबर मंत्रों में महत्वपूर्ण स्थान है।
पित्रात्माएं सभसे अधिक अपना प्रभाव संतति और व्यवसाय पर कुप्रभाव डालती है। पितृत्माओं के रुष्ट हो जाने पर बिना कोई कारण सामने आए आय के स्रोत अवरुद्ध होते प्रति हीने लगते हैं। और बने बनाए काम भी बिगड़ते दिखाई देते हैं। व्यक्ति करना और कहना ती कुछ चाहता है, जबकि स्वतः होता कुछ और कहा कुछ और। ऐसे व्यक्ति को रात की नींद और दिन का चैन उड़ जाता है।
पितत्माओं के समान ही प्रेत भी वायवीय प्राणी होते हैं। उनके पास भौतिक देह नहीं होती। यही कारण है कि वे किसा भी प्रकार की कामना और वासना आदि से वंचित होते हैं।
जब उन्हें अपनी अतृप्त कामना या वासना की पूर्ति करनी होती है तो ये किसी माध्यम (स्त्री-पुरुष, बालक आदि) के द्वारा ही ऐसा करते हैं।
प्रेतों में परकाया प्रवेश की सामर्थ्य होती है। वे प्रायः इस प्रकार के लोगों की अपना माध्यम बनाते हैं, जो दुराचारी, अपवित्र, अभक्षी और दुष्ट प्रकृति के जोकि इस प्रकार के स्त्री-पुरुषों को भी अपना शिकार बना लेते हैं, जिनसे कभी उनकी शत्रुता रही हो अथवा जिनके कारण उन्हें मृत्यु का ग्रास बनना पड़ा हो।
किसी भी व्यक्ति को प्रेतग्रस्त स्थिति दो प्रकार की होती है। पहली स्थिति में प्रेतग्रस्त होने पर व्यक्ति प्रेत के आवेश से कांपने लगता है और उसका स्वर-भंग होकर बदल जाता है। उस व्यक्ति की आँख लाल होने लगती हैं और वह अपने सामान्य बन सामय की अपेक्षा कई गुना अधिक शक्तिशाली प्रतीत होने लगता है। प्रेत आवेशित व्यक्ति यदि कुछ खाने पीने की वस्तुओं को ग्रहण करता है तो वह वास्तव में उस व्यक्ति द्वारा नहीं, बल्कि उस प्रेत द्वारा ग्रहण की जाती है। दूसरी स्थिति में प्रेतग्रस्त होने पर व्यक्ति के ऊपर प्रेत का आवेश स्पष्ट रूप दृष्टिगोचर नहीं होता, बल्कि ऐसा व्यक्ति कुछ विचित्र प्रकार के कार्य करने लगता है। कभी-कभी प्रेत-पीड़ा में व्यक्ति पर न तो किसी प्रकार का आवेश ही दृष्टिगत होता है और न ही उसके कार्यों में किसी प्रकार की विचित्रता प्रकट होता है। प्रेतग्रस्त दशा को इस स्थिति का आभास एकाएक ही उस व्यक्ति अथवा उसके परिवार पर आने वाले अकल्पित संकटों और परिस्थितियों से होता है।
प्राय: प्रेतात्माएं चार प्रमुख कारणों से व्यक्ति की ओर आकृष्ट होती है। इन कारणों में पहला कारण तो यह है कि स्वयं प्रेत अपनी वासनापूर्ति के कारण स्त्री पुरुष की ओर आकर्षित होती है।
दूसरा कारण किसी व्यक्ति द्वारा प्रेत के जीवनकाल से जुड़े प्रतिशोध को माना जाता है।
तीसरा कारण व्यक्ति का अपवित्र वातावरण में रहना अथवा अपवित्रता को ग्रहण करना है। प्राय: प्रेतात्माए अपवित्रता को पसंद करती हैं;
अतः वे स्वभावतः इस प्रकार के व्यक्ति को अपना शिकार बना लेती हैं।
ओझा-तांत्रिक के द्वारा प्रेतात्मा को आहूत करके किसी व्यक्ति विशेष को शिकार बनाने के लिए प्रेरित करना होता है।
इस लेख में विभिन्न प्रकार के शांति-पष्टि कर्म हेतु एक विशेष शाबर में को प्रस्तुत किया गया है।
इस मंत्र की नियमानुसार सिंद्धि कर लने पर ये अपना यथोचित प्रभाव प्रकट करने लगते हैं।
ग्रहशांति हेतु विशिष्ट शाबर मंत्र
ॐ नमो आदेश गुरु को!
घर बांधू घर-कोने बांधू और बांधू सब द्वारा,
जगह-जमीन को संकट बांधू बांधू मैं चौबारा।
फिर बांधू मैली मुसाण को और कीलं पिछवाड़ा,
आगे-पीछे डाकन कीलू आंगन और पनाड़ा।
कोप करत कुलदेवी कीलू पितरों का पतराड़ा।
कीलू भूत भवन की भंगन,
कीलूं कील कील नरसिंग।
जय बोलो ओम नमो नरसिंह भगवान करो सहाई,
या घर को रोग-शोक,
दुःख-दलिहर, भूत-परेत,
शाकिनी-डाकिनी,
मैली मशाण नजर-टोना,
न भगाओ-तो लाख-लाख आन खाओ।
मेरी भक्ति गुरु की शक्ति फुरो मंत्र सांचा,
ईश्वरोवाचा ॐ नमो गुरु को।
यह विशिष्ट शाबर मंत्र किसी पर्व सूर्य चन्द्र ग्रहण दीपावली व होलिका दहन की रात्रि में भी सिद्ध किया जाता है।
इस रात्रि में एक एकांत कमरे में गो-घृत का दीप प्रज्वलित करके एक चौकी पर रखा जाए। उस चौकी पर नया लाल अथवा गुलाबी रंग का रेशमी कपडा बिछा दिया जाए। चौकी के बीचों-बीच पुओं का ढेर स्थापित करके उसमें ईश्वरीय रूप-भाव की आस्था करें। फिर उसका हल्दी, गुड़ और धूपादि से पूजन करें। तत्पश्चात् उपरोक्त मंत्र की एक माला का जप करके मंत्र को सिद्ध कर लें। और पुओं के ढेर को किसी तालाव अथवा नदी में विसर्जित कर दें।
जब गृह शांति के लिए इस मंत्र की आवश्यकता हो तो रात्रिकाल में नागफनी का कील लें। बाधा-पीडित ग्रह के किसी साफ-स्वच्छ कमरे में एक नए गुलाबी के कपड़े को काष्ठ की एक चौकी पर बिछा दें। चौकी पर सात अन्न की ढेरिया और चौकी के चारों कोनों पर सात-सात पूडी रख दें। प्रत्येक पूड़ी के ढेर पर हलवे कुछ मात्रा रखें।
चौकी पर पंचमेवा, फल और प्रसाद भी रखें। चौकी के नीचे या चावल के छोटे-से ढेर पर एक दीपक जलाकर रखें। धूप-आरबत्ती से वातावरण को सुगंधित बनाते हुए नौ कीलें तथा नौ नींबुओं पर इक्यावन बार सिद्ध कीए गए मंत्र का जप करें तत्पश्चात् नौ कोलों को नौ नौबुओं में गाड़ दें।
इन कीलित नींबुओं में से चार नींबुओं को गृह के चारों कोनों में गाड़ दें।
एक कोलित नींबू गृह के प्रवेश द्वार पर,
एक जल रखने के स्थान पर,
एक गृह के आगे,
एक पीछे और
एक नींबू पतनाले के नीचे गाड़ देना चाहिए।
इन कीलित नींबुओं को गाढ़ते समय बराबर मंत्र जाप करते रहना चाहिए।
यह सम्पूर्ण उपाय करने के उपरांत चौकी तथा चौकी के नीचे रखे सभी उन पदार्थों को, जो इस उपाय में प्रयुक्त किए गए थे, उन्हें किसी एकांत स्थान पर रख आएं। उपरोक्त प्रक्रिया करने से गृह बाधा से मुक्ति प्राप्त हो जाती है।
यह प्रयोग शुक्ल पक्ष की अष्टमी अथवा चतुर्दशी को करने पर विशेष लाभ मिलता है। इस प्रयोग के अगले दिन गृह स्वामी प्रातः यथाशक्ति ब्राह्मण को भोजन, गाय को चारा-पानी तथा दान-पुण्य करें।