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गुरुवार, 21 अप्रैल 2022

सात्विक साधना द्वारा शत्रुनाश

सन्तातन धर्म में जहाँ वैष्णव पद्धति को सरल एवं सौम्य माना जाता है वहीं पर जो लोग वैष्णव पद्धति की साधनाये करते हैं और जिन्हें इस पद्धति का पूर्ण ज्ञान है उन्हें इस बात का पूरा ज्ञान है कि इस शैली से की गई पूजा से जहां घर मे चिर स्थिर लक्ष्मी जी वास होता है।

उसी के साथ एक बात ये भी समझ लीजिए कि वैष्णव शक्तियां जल्दी अप्रसन्न नही होती अगर ये अप्रसन्न हो जाएं और समय पर इनको मनाया न जाये तो इन शकितयों से ही उग्र एवम प्रचण्ड तामसिक शक्तियों का पदुर्भाव होता है ।
इस लिए सौम्य एवम सात्विक शक्तियों का सदैव सम्मान करना चाहिए।

आज आपको इस लेख में मैं एक ऐसा उपाय बताने जा रहा हु जिससे आपको बहुत लाभ प्राप्त होगा।

यदि आपके घर में बहुत अधिक गरीबी या दरिद्रता आ गयी है बहुत अधिक ऋण आपके ऊपर है जिसको आप उतार नही पा रहे।
या को व्यक्ति विशेष एव उसका परिवार जिसके सदस्यों की संख्या आपके परिवार से अधिक है जो धन पद एवं बल में आपसे कितना भी बड़ा क्यों न हो ऐसा व्यक्ति यदि आपसे अकारण द्वेष रखता है जिसके कारण आपको या आपके परिवार के किसी सदस्य को जीवन का भय है को निम्नलिखित प्रयोग को करके उपेक्षित लाभ प्राप्त किया जा सकता है।

धन प्राप्ति प्रयोग:-नित्यप्रति रात्रि में जब आप सोने जाए तो उससे पहले घर पर बने मंदिर में पूर्वाभिमुख होकर इस स्तोत्र के 5 पाठ करें , तो शीघ्र ही आपकी मनोकामना पूरी होगी आजीविका एवं ज्ञात अज्ञात स्रोतों से आपको अवश्य धन लाभ होगा। ये प्रयोग शत प्रतिशत परीक्षित है कोई संदेह नही।

जैसा मैंने आपको पहले बताया कि यदि कोई प्रबल शत्रु आपके एव आपके परिवार के पीछे पड़ जाए और उस शत्रु तथा उसके परिवार कुटुंब से आपके पारिवारिक सदस्यों को जीवन हानि का भय हो तो इस प्रयोग को कर देना चाहिए।
कि सूर्यास्त के बाद चैराहे पर बैठकर इस स्तोत्र के पाँच पाठ लगातार तीन या पांच रविवार को करें और भगवान से अपने परिवार के रक्षा हेतु प्रार्थना करें तो कुछ काल में शत्रु विच्छिन होकर दरिद्रता एवं व्याधि से पीड़ित होकर नगर छोड़कर भाग जायेगें।

यदि आप द्वारा किया गया प्रयोग हरि इच्छा के विपरीत होगा तो आपका प्रयोग सफल नहीं होगा।


श्रीकृष्ण कीलक

ॐ गोपिका-वृन्द-मध्यस्थं, रास-क्रीडा-स-मण्डलम्।
क्लम प्रसति केशालिं, भजेऽम्बुज-रूचि हरिम्।।
विद्रावय महा-शत्रून्, जल-स्थल-गतान् प्रभो !
ममाभीष्ट-वरं देहि, श्रीमत्-कमल-लोचन !।।
भवाम्बुधेः पाहि पाहि, प्राण-नाथ, कृपा-कर !
हर त्वं सर्व-पापानि, वांछा-कल्प-तरोर्मम।।
जले रक्ष स्थले रक्ष, रक्ष मां भव-सागरात्।
कूष्माण्डान् भूत-गणान्, चूर्णय त्वं महा-भयम्।।
शंख-स्वनेन शत्रूणां, हृदयानि विकम्पय।
देहि देहि महा-भूति, सर्व-सम्पत्-करं परम्।।
वंशी-मोहन-मायेश, गोपी-चित्त-प्रसादक ।
ज्वरं दाहं मनो दाहं, बन्ध बन्धनजं भयम्।।
निष्पीडय सद्यः सदा, गदा-धर गदाऽग्रजः ।
इति श्रीगोपिका-कान्तं, कीलकं परि-कीर्तितम्।।
यः पठेत् निशि वा पंच, मनोऽभिलषितं भवेत्।
सकृत् वा पंचवारं वा, यः पठेत् तु चतुष्पथे।।
शत्रवः तस्य विच्छिनाः, स्थान-भ्रष्टा पलायिनः।
दरिद्रा भिक्षुरूपेण, क्लिश्यन्ते नात्र संशयः।।






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