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बुधवार, 30 नवंबर 2022

शिव के मंत्र की विस्तृत जानकारी और साधना।

                महेश्वर का पंचाक्षर मंत्र 

(व्याधिमुक्त, दीर्घायु, बाधित धन अभीष्टों की प्राप्ति हेतु)

मंत्र: ॐ नमः शिवाय।

देवाधिदेव महादेव शिवशंकर का पूजन करना चाहिए। 

उपरांकित मंत्र का 24 लाख जप पूरे हो जाने पर भगवान शंकर समस्त सिद्धियों को प्रदान करने वाले हैं अतः सर्वविधि षोडशोपचार से मनोयोग, श्रद्धा, विश्वास तथा आस्था के साथ करने के उपरान्त 24 हजार मंत्रों द्वारा हवन सम्पन्न करने से मंत्र सिद्ध हो जाता है। 

एक बार मंत्र सिद्ध हो जाए, तो सभी अभीष्टों की संसिद्धि अत्यन्त सुगमता से हो जाती है।

इस मंत्र की सिद्धि के विषय में किये जाने वाले पुरश्चरण की व्याख्या करते हुए विशेष निर्देश दिए गए हैं जो अग्रांकित हैं जिसके लिए मंत्र महेश्वर तंत्र का विस्तृत अध्ययन तथा अनुसरण आवश्यक है। यहाँ हम मंत्र महेश्वर की कतिपय चमत्कारी साधनाओं का उल्लेख करना भी उपयुक्त समझते हैं।

अथ वक्ष्ये महेशस्य मंत्रान् सर्वसमृद्धिदान् यैः पूर्वमृषयः प्राप्ताः शिवसायुज्यमञ्जसा ।।1।।

इसके उपरान्त बाद सम्पूर्ण सिद्धियों के देने वाले महेश्वर के मंत्र को कहता हूँ, जिसका अनुष्ठान करके पूर्वकाल में अनेक महर्षियों ने अनायास ही शिव सायुज्य प्राप्त किया। शिवमंत्रः । ऋष्यादिकथनम्

हृदयं वपरं साक्षि लान्तोऽनन्तान्वितो मरुत् । पञ्चाक्षरो मनुः प्रोक्तस्ताराद्योऽयं षडक्षरः ।। 2 ।।

हृदय (नमः), वपर (श), साक्षि (उसे इकार से संयुक्त करें), लान्त (व) अनन्त (उसे आकार से संयुक्त करें), तदनन्तर मरुत् (य)। इस प्रकार 'नमः शिवाय' यह पञ्चाक्षर शिव का मंत्र निष्पन्न हुआ। यदि इस के आदि में प्रणव (ॐ) का योग कर दें तो 'ॐ नमः शिवाय' यह षडक्षर शिव मंत्र निष्पन्न हुआ है।

षडङ्गन्यासः

वामदेवो मुनिश्छन्दः पंक्तिरीशोऽस्य देवता । षड्भिर्वर्णैः षडङ्गानि कुर्यान्मन्त्रस्य देशिकः ।।3।।

इस महामंत्र के वामदेव ऋषि हैं, पंक्ति छन्द है और ईश्वर देवता हैं। साधक इस मंत्र के छः अक्षरों से षडङ्गन्यास करें।

पशमूर्तिन्यासः मन्त्रवर्णादिका न्यस्येत् पञ्चमूर्त्तीर्यथाक्रमम् तर्जनीमध्ययोरन्त्यानामिकांगुष्ठ के पुनः ।।4।।

पुनः इस मंत्र के आदि वर्णों के क्रम से क्रमानुसार पञ्चमूर्तियों द्वारा हाथों की दोनों तर्जनी, मध्यमा, कनिष्ठा, अनामिका तथा अंगुष्ठों में न्यास करें।

ताः स्युस्तत्पुरुषाघोरसद्योवामेशसंज्ञकाः ।
वक्त्रहृत्पदगुह्येषु निजमूर्धनि ताः पुनः ।5।।

ये पञ्चमूर्तियाँ क्रमशः तत्पुरुष- अघोर सद्योजात वामदेव तथा ईशान संज्ञक हैं। चारों अंगुलियों में न्यास का प्रयोग क्रमशः 'शिं तत्पुरुषमूर्त्यै तर्जनीभ्यां नमः', 'वां अघोरमूर्त्यं मध्यामाभ्यां नमः' इत्यादि प्रकार से करें। इसी प्रकार पञ्चाक्षर मंत्र के एक-एक अक्षर से संयुक्त एक-एक मूर्ति का न्यास मुख, हृदय, पाद गुह्य, तथा सिर प्रदेश में करें।

पञ्चसु ।

प्राग्याम्यवारुणोदीच्यमध्यवक्त्रेषु मन्त्राङ्गानि न्यसेत् पश्चाज्जातियुक्तानि षट् क्रमात् ।। 6 ।।

इसके पश्चात् अपने सिरः प्रदेश में पंचवक्त्रत्व की भावना करते हुए पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर तथा मध्य इस प्रकार पाँच मुखों में पूर्वोक्त विधि से न्यास करें। पुनः मंत्र के अंग से तत्तदञ्जलि युक्त षडङ्गन्यास करें। यथा 'ॐ हृत् नं शिर' इत्यादि

कुर्वीत          गोलकन्यासं रक्षायै तदनन्तरम् ।
हृदि वक्त्रेऽसयोऽर्वोः कण्ठे नाभौ द्विपार्श्वयोः ।।7।।

पृष्ठे हृदि ततो मूर्ध्नि वदने नेत्रयोर्नसोः । 
दो: पत्सन्धिषु साग्रेषु विन्यसेत्तदनन्तरम् ।।8।।

शिरोवदनहत्कुक्षिसोरुपादद्वये         पुनः।
हृदि वक्त्राम्बुजे टङ्के मृगाभयवरेष्वथ ।।9।।

इस प्रकार तत्त्वन्यास करने के बाद अपनी रक्षा के लिए दशावृत्ति में किए जाने वाले गोल तथा हृदय में द्वितीयावृत्ति, मूध, मुख, दोनों नेत्र तथा दोनों नासिका में तृतीयावृत्तिः इसके चाट न्यास करें। हृदय, मुख, दो कन्धे और दोनों ऊरु में प्रथमावृत्ति, कण्ठ, नाभि दोनों पाश्व बाहु तथा पैरों में चतुर्थावृत्ति; उनकी सन्धियों में पंचम आवृत्ति; अंगुलियों के मध्य सन्धि में षष्ठावृत्ति; उनके अग्रभाग में सप्तम आवृत्ति से न्यास करें।

वक्त्रांसहत्सपादोरुजठरेषु क्रमान् न्यसेत्
मूलमन्त्रस्य षड्वर्णान् यथावद्देशिकोत्तमः । ।10।।

पुनः सिर, मुख, हृदय, कुक्षि, ऊरु तथा दोनों पैरों में अष्टम आवृत्ति, हृदय, मुख, परशु मृग, अभय तथा वर में नवम आवृत्ति; इसके पश्चात् मुख, कन्धा, हृदय, पाद, ऊरु और जठर में दशमावृत्ति के क्रम से न्यास करें। उत्तम आचार्य इस प्रकार मूल मंत्र मे छः अक्षरों के प्रत्येक वर्ष से उक्त स्थानों में दशावृत्ति युक्त न्यास करें।

मूर्ध्नि भालोदरांसेषु हृदये ताः पुनर्न्यसेत्
पश्चादनेन मन्त्रेण कुर्वीत व्यापकं सुधी ।।11।। 
नमोऽस्तु स्थाणुरूपाय ज्योतिर्लिङ्गामृतात्मने। चतुर्मूर्त्तिवपुच्छायाभासिताङ्गाय। शम्भवे
 एवं न्यस्तशरीरोऽसौ चिन्तयेत्पार्वतीपतिम् । ।12 ।

पुनः सिर, भाल, उदर दोनों कन्धे तथा हृदय में पंचमूर्तियों के द्वारा पुनः न्यास करें, आगे

कहे जाने वाले मन्त्र से बुद्धिमान् साधक व्यापक न्यास करें। मन्त्र है- 
'नमोऽस्तु स्थाणुरूपाय ज्योतिर्लिङ्गात्मने चतुर्मूर्त्तिवपुच्छाया भासिताङ्गाय शभ्भवे'। 

इस मन्त्र से व्यापक न्यास करके पार्वतीपति शंकर का इस रूप में ध्यान करें। दशावृत्तिमयं गोलकन्यासमाह । तदनन्तरं तत्त्वन्यासानन्तरमित्यर्थः ।

तत्त्वन्यासो यथा-

वक्ष्यतेऽथो शैवतत्त्वन्यासः प्रसादतः परम् ।
पचाक्षरी परायेति तत्त्वनामात्मने नमः ।। 
आवृत्त्या शिवपञ्चाक्षर्यर्णयुक्तं पृथक् सह।
द्वितीयादि क्षादिवर्णैरान्तैराद्यं ध्रवादिकैः (कम्) ।। 
शिवः शक्तिः सदापूर्वः शिव ईश्वर एव च ।


शुद्धविद्या च माया च कालश्च नियतिः कला ।। 
स्मृतोपरागः पुरुषः प्रकृतिर्बुद्ध्यहंकृती । 
मन एतान् हृदि न्यस्येत् श्रोत्रादिषु स्थले तथा । वागाद्यप्यथशब्दादि मूर्धास्योरौ गुदे पदे ।। 
आकाशादीन् न्यसेदेषु वक्ष्यमाणं च पञ्चकम् ।
सदाशिवाद्या आकाशाद्याधिपत्यन्तकाः सङेः । शान्त्यतीताकलाद्यन्ता निवृत्त्याद्याः स्वबीजतः । 
न्यसेत् पादादिशीर्षान्त मूर्धादिचरणान्तिके ।। शान्त्यात्मेशानमूर्धा च ङेयुतश्च सदाशिवः । 
सत्यात्मा तत्त्पुरुषवक्त्रो ङेयुतश्च ईश्वरः ।। नादात्माऽघोरहृदयो डेयुतश्च महेश्वरः । 
बिन्द्वात्माऽथो वामदेवगुह्यो विष्णुश्च ङेयुतश्चः । 
बीजात्मा च सद्योजातपादो ब्रह्मा च ङेयुतश्चः । ईशानाद्यानूर्ध्ववक्त्राद्यान् सदाशिवपूर्वकान् ।। ऊर्ध्वादिपञ्चवक्त्रेषु ङेतानक्षरपूर्वकान् इति ।।

पञ्चमुखशिवध्यानम्

ध्यायेत्रित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारुचन्द्रावतंसं रत्नाकल्पोज्ज्वलाङ्गं परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम् । पद्मासीनं समन्तात् स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृत्तिं वसानं विश्वाद्यं विश्वरूपं निलिखभयहरं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रम् ।।

रजत पर्वत के समान जिनके शरीर का वर्ण सर्वथा श्वेत है, जिनके भाल प्रदेश में द्वितीया का चन्द्रमा आभूषण रूप में विभूषित है, जिनका समस्त अंग रत्न के समान उज्ज्वल है, जिनके हाथ में परशु, मृग, वर और अभय मुद्रा हैं, जो सर्वथा प्रसन्न रहने वाले हैं जो श्वेत पद्म के आसन पर विराजमान हैं, देवता लोग जिनकी चारों ओर से स्तति कर रहे हैं, व्याघ्र चर्म को धारण किए उन विश्व के आदि, विश्वरूप, निखिल भयहर्ता, पंचमुख तथा त्रिनेत्र महेश्वर का ध्यान करना चाहिए।

उच्छ्रितं दक्षिणाङ्गुष्ठं वामाङ्गुलीर्दक्षिणाभिरङ्गुलीभिश्च
वामाङ्गुष्ठेन बन्धयेत्वेष्टयेत् ।लिङ्गमुद्रेयमाख्याता  शिवसात्रिध्यकारिणी ।। इयं सर्वशेवमन्त्रसाधारणीति ज्ञेयम् ।।  पुरश्चरणादिकथनम्

तत्त्वलक्षं जपेन्मन्त्रं दीक्षितः शैववर्त्मना।
तावत्संख्यासहस्राणि जुहुयात् पायसैः शुभैः।
ततः सिद्धो भवेन्मन्त्रः साधकाभीष्टसिद्धिदः।।

शैव मार्ग के अनुसार दीक्षा लेने के पश्चात् इस मंत्र का 24 लाख जप करें। फिर पायस से च हजार होम करें। तब यह मंत्र सिद्ध हो जाता है और साधक को अभीष्ट सिद्धि प्रदान करता है।

देवं सम्पूज्येतपीठे वामादिनवशक्तिके । 
वामा ज्येष्ठा ततो रौद्री काली कलपदादिका ।।
विकारिण्याह्वया   प्रोक्ता बलाद्या विकरिण्यथ।
बलप्रमथनी            पश्चात्सर्वभूतदमन्यथ ।।

आसनमन्त्र

मनोन्मनीति संप्रोक्ताः शैवपीठस्य शक्तयः ।
नमो भगवते पश्चात्सकलादि वदेत् पुनः ।।
गुणात्मशक्तियुक्तायततोऽनन्तायतत्परम्
योगपीठात्मने भूयोनमस्तारादिको मनुः ।।

तत्पश्चात् वामादि नव शक्तियों से युक्त पीठ पर सदाशिव का पूजन करें। 
1. वामा, 
2. ज्येष्ठा, 
3. रौद्री, 
4. कलपदा, 
5. विकरिणी 
6.छबलविकरिणी, 
7. बलप्रमथिनी, 
8. सर्वभूतदमनी और, 
9. मनोन्मयी- ये शैव पीठ की नवशक्तियाँ हैं। 

'ॐ नमो भगवते सकलगुणात्मशक्तियुक्ताय अनन्ताय योगपीठात्मने नमः' यह कहें।
अमुना मनुना दद्यादासनंगिरिजापतेः । 
मूर्ति मूलेन सङ्कल्प्या तत्राऽऽवाह्य यजेच्छिवम् ।।

ऊपर कहे गए मन्त्र से गिरिजापति को आसन प्रदान करें, मूल मन्त्र पढ़कर मूर्ति की कल्पना करें, तदन्तर उसी में शिव का आवाहन कर पूजा करें।

आवरणदेवताध्यानम्-
कर्णिकायां यजेन्मूर्तीरीशमीशानदिग्गतम् । शुद्धस्फटिकसङ्काशं दिक्षु तत्पुरुषादिकाः ।।
 
पश्वात् ईशान कोण में शुद्ध स्फटिक के समान ईशान मूर्त्ति की पूजा करें। कर्णिका में चारों दिशाओं में तत्पुरुष, अघोर, सद्योजात और वामदेव की मूर्तियों की पूजा करें।

पीताञ्जनश्वेतरक्ताः प्रधानसदृशायुधाः ।
चतुर्वक्त्रसमायुक्ता यथावत् संप्रपूजयेत् ।।

ऊपर ईशान का रूप शुद्ध स्फटिक समान कह दिया गया है। अब शेष चार मूर्तियों के वर्ण कहते हैं ये मूर्तियाँ क्रमशः पीत, अञ्जन, श्वेत तथा रक्त वर्ण की हैं। सभी के आयुध प्रधान के सदृश हैं। सभी चार मुखों से युक्त हैं, उनकी प्रणव से युक्त मन्त्र वर्णों से यथाविधि पूजा करें।

कोणेष्वर्च्याः निवृत्त्याद्यास्तेजोरूपाः कलाः क्रमात् । 
अङ्गानि केसरस्थान विद्येशान् पत्रगान् यजेत् । ।

इसके उपरांत कर्णिकाओं के चारों कोणों में तेजःस्वरूप चार कलाओं की निवृत्ति, प्रतिष्ठा, विद्या और शान्ति की पूजा करें। ईशान में शान्त्यतीता की पूजा करें। केशरों पर अंगों की तथा पत्रों पर विद्येश्वरों की पूजा करें।

अनन्तं     सूक्ष्मनामानं शिवोत्तममनन्तरम् ।
एक नेत्रमेकरुद्रं  त्रिनेत्रं         तदनन्तरम् ।।
पश्चाच्छ्रीकण्ठनामानं  शिखण्डिनमनन्तरम्
रक्तपीतसितारक्तकृष्ण रक्ताञ्जनासितान्

अनन्त, सूक्ष्म, शिवोत्तम, एकनेत्र, एकरुद्र, त्रिनेत्र, श्रीकण्ठ एवं शिखण्डी ये विद्येशों के नाम हैं। इनका वर्ण क्रमशः रक्त, पीत, सित, रक्त, कृष्ण रक्त, अंजन एवं श्वेत है।

किरीटार्पितबालेन्दून् पद्मस्थिातान् भूषणान्वितान् ।
त्रिनेत्रान्        शूलवज्रास्त्रचापहस्तान् मनोहरान् ।।

इन सभी की किरीट में बालेन्दु विराजमान हैं, सभी पद्म पर आसीन हैं और भूषणों से भूषित एवं त्रिनेत्र हैं। सभी अपने हाथों में शूल, वज्र, बाण और धनुष लिए हुए हैं और समस्त की आकृतियाँ मनोहर हैं।

उत्तरादि यजेत्पश्चादुमां          चण्डेश्वरं पुनः।
ततो        नन्दिमहाकालौ गणेशवृषभौ पुनः ।।
अथ भृङ्गरीटिं स्कन्दमेतान् पद्मासनस्थितान् । स्वर्णतोयारुणश्याममुक्तेन्दुसितपाटलान् ।।। 

इसके उपरान्त उत्तर के क्रम से उमा, चण्डेश्वर नन्दी, महाकाल, गणेश, वृषभ, भृङ्गरीटि और स्कन्द इन आठों विद्येश्वरों की आठों दिशाओं में पूजा करें। ये सभी पद्मासन पर स्थित हैं इनके शरीर के वर्ण सुवर्ण, जल, अरुण, श्याम, मुक्ता, चन्द्रमा श्वेत और पाटल (रक्त) हैं।

इन्द्रादयस्ततः पूज्याः वज्राद्यायुधसंयुताः ।
इत्थं संपूजयेद्देवं सहस्रं नित्यशो जपेत् ।।

तत्पश्चात् वज्रादि आयुधों से संयुक्त इन्द्रादि इस दिग्पाला की पूजा करें। इस प्रकार आवरण सहित देवाधिदेव की पूजा करें और नित्य प्रति इच्छित उक्त मन्त्र का जप करें। 

सर्वपापविनिर्मुक्तः प्राप्नुयाद्वाञ्छितां श्रियम् ।
द्विसहस्रं     जपेद्रोगान् मुच्यते नात्र संशयः ।।

फलश्रुति-

ऐसा करने से सुधी साधक सभी पापों से मुक्त हो जाता है, इच्छित श्री प्राप्त करता है। 

यदि उपरोक्त विधि से पूजा कर दो सहस्र नित्य जप करे तो साधक रोगमुक्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं है।

त्रिसहस्रं     जपेन्मन्त्रं दीर्घमायुरवाप्नुयात् ।
सहस्रवृद्ध्या प्रजपन् सर्वान् कामानवाप्नुयात् ।।
आज्यान्वितैस्तिलैः शुद्धैर्जुहुयाल्लक्षमादरात् ।
उत्पातजनितान् क्लेशान्नाशयेन्त्राऽत्र संशयः ।
शतलक्षं जपेत्साक्षाच्छिवो भवति मानवः   ।।

यदि तीन सहस्र नित्य जप करे तो दीर्घ आयु प्राप्त करता है। चार सहस्र जप करे तो सम्पूर्ण कामनाएँ सिद्ध कर लेता है। यदि इस मन्त्र से घृत मिश्रित शुद्ध तिलों द्वारा भक्तिपूर्वक एक लाख जप करे तो साधक दिव्य भौम अन्तरिक्षजन्य उत्पातों को विनष्ट कर देता है, इसमें संशय नहीं है। यदि इस मन्त्र का एक करोड़ जप करें तो वह मनुष्य साक्षात् शिव हो जाता है।

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