श्यामा काली साधना।
भगवती 'श्यामा अर्थात् काली के अनेक स्वरूप तथा अनेक नाम हैं । यह पर हम श्यामा काली की साधना का उल्लेख कर रहे हैं। भगवती श्यामा का साधना मूल मन्त्र यह है
"हूं हूं ह्रीं दक्षिण कालिके क्रीं क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं
स्वाहा साधन विधि - सर्वप्रथम भोजपत्र पर अष्टगन्ध से भगवती श्यामा के यन्त्र का निर्माण करें। भगवती श्यामा के पूजन यन्त्र के भेद हैं यहाँ पर आपको एक यन्त्र चित्र में दिया जा रहा है
उक्त भिन्न प्रणाली के पूजन-यन्त्र को नीचे प्रदर्शित किया जा रहा है।
यन्त्र - लेखन से पूर्व स्नानादि नित्य कर्मों से निवृत हो लेना आवश्यक है ।
प्रात: कृत्यादि के पश्चात् सर्वप्रथम 'श्रीं' इस मन्त्र से तीन बार आचमनीय जल का पान करके “ॐ काल्यै नमः' तथा 'ॐ कपालन्यैि नमः' ।
इन मन्त्रों का उच्चारण करते हुए दोनों होठों का दो बार मार्जन करना चाहिए।
तत्पश्चात् 'ॐ कुल्वायै नमः' इस मन्त्र से हम प्रक्षालन करें।
फिर ॐ कुरु कुरु कुल्वाये नमः' - इस मन्त्र से मुख का
ॐ विरोधिन्यं नमः - इस मन्त्र से दक्षिण नासिका का
'ॐ विप्रचित्रायै नमः" - इस मन्त्र से वाम-नासिका का
ॐ उग्राय नमः - इस मन्त्र से दायें नेत्र का,
'ॐ उग्रप्रभायै नमः'- हम मन्त्र से बायें नेत्र का,
ॐ दीप्तायै नमः - इस मन्त्र से दायें कान का,
'ॐ नीलायै नमः' -इस मन्त्र से बायें कान का,
ॐ धनाय नमः' – इस मन्त्र से नाभिका का,
ॐबलाकायै नमः' - इस मन्त्र से छाती का,
ॐ मात्राय नम:' इस मन्त्र से मस्तक का,
‘ॐ मुद्रियं नमः - इस मन्त्र से दायें कन्धे का,
तथा 'ॐ नित्यायै नमः ' - इस मन्त्र से बायें कन्धे का स्पर्श करना चाहिए।"
उक्त प्रकार से आचमन करने के उपरांत सामान्य पूजा पद्धति के नियमानुसार भूत-शुद्धि तक सब कार्य करके मायबीज – 'ह्रीं' इस मन्त्र से यथाविधि प्राणायाम करें। तत्पश्चात् ऋष्यादि न्यास करें। फिर कराङ्गन्यास, वर्णन्यास, पोढान्यास, तत्त्वन्यास तथा बाजन्यास करके भगवती श्यामा का ध्यान करना चाहिए ।
ध्यान का स्वरूप - काली तन्त्र में भगवती श्यामा के ध्यान का स्वरूप निम्नानुसार कहा गया है।
"करालवदनां घोरां मुक्तकेशीं चतुर्भुजाम् । कालिका दक्षिणां दिव्यां सुण्डमाला विभूषिताम् ।। सदाश्छिन्न शिरः खङ्ग वामाधोऽर्ध्व करांषुजाम् । श्रभयं वरदं चैव दक्षिणाधोर्ध्व पारिणाम् ॥ महामेघ प्रभां श्यामां तथा चैव दिगम्बरीम् । कण्ठावसक्त मुण्डलीं गलद्दृधिर चचिताम् ॥ करवंत सतानीत युग्मभयान काम् । घोरदंष्ट्रा करालास्यां पीनोन्नतपयोधराम् ॥ शवानां कर संघातः कृत काञ्चीं हसन्मुखीम् । सृक्कद्वय गलाद्रक्त धाराविस्फुरिताननाम् ॥ घोर रावां महारौद्री श्मशानालयवासिनीम् । बालार्क मण्डलाकार लोचन त्रितयारिवताम् ॥वन्तुरांदक्षिण शवरूप महादेव
व्यापि मुक्तालम्बिक चोच्चयाम् ।हृदयोपरि सस्थिताम् ॥शिवाभिर्घोरिरावाभिश्चतु दिक्षसमन्विताम् ।महाकालेन च •
शुभविपरीतरतातुराम् ॥सुखप्रसन्नवदनांस्मेराननसरोरुहाम्
एवं संचिन्तयेत्काल सर्वकाम समृद्धिबाम् ॥” '
स्वतन्त्र तन्त्र' में देवी के ध्यान का स्वरूप निम्नानुसार कहा गया है
" श्रञ्जन्नाद्विनिभां देवी करालवदनां शिवाम् |
मुण्डमालावलीकीरणी मुक्तकेशीं स्मिताननाम् ॥
महाकालहृदम्भोजस्थितां पीनपयोधराम् ।
विपरीतरतासक्तां घोर दंष्ट्रांशिवः सह ॥
नागयज्ञपवीताढयया चन्द्रार्द्धकृत शेखराम् ।
सर्वलङ्कार संयुक्तां मुण्डमाला विभूषितम् ॥
तहस्त सहस्रस्तु बद्धकाञ्चीं दिगंशुकाम् ॥
शिवाकोटि सहस्रं स्तु योगिनीभिविराजिताम् ।
रक्तपूर्ण मुखाभोजां मद्यपान प्रमत्तिकाम् ।
विर्क शशिनेत्रां च रक्तविस्फुरिताननाम् ॥
विगतासु किशोराभ्यांकृत कर्णवतंसिनोम् |
कर्णावसक्तमुण्डाली गलद्र घिर चत्रिताम् ॥
श्मशान वह्निमध्यस्यां ब्रह्म केशव वन्दिताम् ।
सद्यः कृत शिरः खङ्गवराभीतिकराम्बुजाम् ॥
पूर्वोक्त प्रकार से ध्यान करने के पश्चात् अर्ध्य स्थापित करना चाहिए । अयं स्थापनोपरांत पीठ-पूजा तथा प्रावरण- पूजा करके भैरव पूजन करे। भैरव पूजन का ध्यान निम्नानुसार है
भैरव पूजन के बाद देवी भस्म पूजन करके विसर्जन करना चाहिए। 'स्वतन्त्र तन्त्र' में लिखा है कि मुद्रा, तर्पणादि द्वारा देवी की पूजा, यन्त्र जप तथा नमस्कार करके अपने हृदय में देवों को विसर्जित करना चाहिए।
जिस समय किसी कार्य की सिद्धि के लिए जप किया जाय, उस समय मुंह में कपूर रख कर, कपूरमुक्त जिहवा से जप करना चाहिए। फिर देवी की स्तुति करके प्रदक्षिणा सहित साष्टाङ्ग प्रणाम करें तथा 'जन्गमङ्गल कवच का पाठ करें। ‘जगन्मङ्गल - कवच' 'स्तोत्र ग्रन्थों' में देख लें । 'जगन्मङ्गल कवच' का पाठ करने के बाद देवी के भङ्ग में समस्त आवरण देवताओं को विलीन करके सहार मुद्रा द्वारा 'काल्यै क्षमस्व:' यह कहकर विसर्जन करना चाहिए।
'काली तन्त्र' में इस मन्त्र के पुरश्चरण में २००००० की संख्या में जप करने का निर्देश किया गया है । उसमें कहा गया है कि साधक पवित्र तथा हविष्याशी होकर १००००० की संख्या में, दिन में जप करे तथा रात्रि के समय मुँह में ताम्बूल रखकर तथा शय्या पर बैठकर इतनी ही संख्या में जप करे । जप के बाद दशांश घृत-होम करना चाहिए। 'नील सारस्वत' के मता होम के बाद तर्पण तथा अभिषेक भी करना चाहिए ।
रात्रिजप का विशेष नियम यह है कि रात्रि के दूसरे प्रहर से तीसरे प्रहर तक मन्त्र का जप करना चाहिए। परन्तु रात्रि के शेष प्रहर में जप नहीं करना चाहिए।
उक्त प्रकार से पुरश्चरण करने से भगवती श्यामा देवी साधक पर प्रसन्नहोकर उसे अभीप्सित फल देती हैं।